गढ़वाल और कुमाऊं का इतिहास
ये वो वक्त था जब गढ़वाल और कुमाऊं उत्तराखंड नहीं थे. ये वो वक्त था जब हिमालय के इन दो क्षेत्रों के मूल निवासी यहां रहा करते थे. ना तो वहां के लोग इस सवाल को जानते थे और ना ही इन क्षेत्रों से बाहर की दुनिया को. गढ़वाल और कुमाऊं जो आज उत्तराखंड के तौर पर एक हैं,गढ़वाल और कुमाऊं कहां से आए?
ये नाम गढ़वाल कैसे पढ़ा जाने लगा?
क्या आपने कभी अक्सर सड़कों से लेकर सोशल मीडिया तक कुमाऊं बनाम गढ़वाल की बहस खूब चलती रहती है। आज भी गढ़वाली और कुमाऊंनी के बीच खूब नोकझोंक होती है, लेकिन क्या आपने कभी सोचा है कि ऐसा क्यों है? दोनों की संस्कृति, भाषा, खान-पान और दूसरी चीजों में ज्यादा फर्क नहीं है और दोनों को ही उत्तराखंडी होने पर गर्व है, फिर आपके और मेरे बीच लड़ाई क्यों है? तो आज हम गढ़वाल और कुमाऊं के बारे में जानेंगे, इनके इतिहास की गहराइयों में जाएंगे जो 5000 साल से भी ज्यादा पुराना है।
आज हम बात करेंगे गढ़वाल और कुमाऊं के इतिहास की, बात करेंगे आपकी और हमारी उत्पत्ति की और वजह है मैदानी इलाकों के लोगों का वो सवाल जो अक्सर पूछा जाता है. पहाड़ी लोग अपनी खाट कैसे बिछाते थे? आज हम जिन क्षेत्रों को गढ़वाल और कुमाऊं के नाम से जानते हैं,उनके हमेशा ये नाम नहीं थे.
शुरुआत करते हैं कुमाऊं और गढ़वाल की उत्पत्ति से. सबसे पहले जानते हैं कुमाऊं नाम के पीछे की पूरी कहानी. कुमाऊं और गढ़वाल का अस्तित्व 5000 साल पहले तक मिल जाता है।ऐसे में कुमाऊं नाम के पीछे धार्मिक और ऐतिहासिक दोनों मान्यताएं हैं. कुमाऊं को कभी कुर्मांचल,खस देश, उत्तर कौशल समेत कई नामों से जाना जाता था. सबसे पहले बात करते हैं कुर्मांचल की.
एक लोक कथा के अनुसार जब भगवान विष्णु का दूसरा अवतार कच्छवे का हुआ तो वे तीन वर्ष तक चम्पावत नदी के पूर्व में स्थित एक पर्वत पर खड़े रहे।
भगवान विष्णु के यहां कूर्म या कच्छवा के रूप में रहने के कारण इस पर्वत का नाम कूर्म का आंचल पढ़कर कूर्मौचल हो गया। यह वही पर्वत है जिसे कांडा देव और कणदेव नाम से भी जाना जाता है। बद्रीदत्त पांडे कुमाऊं के इतिहास में बताते हैं कि कूर्मौंचल का नाम बिगड़ते बिगड़ते कुमु हो गया और बाद में आम बोलचाल में यह कुमाऊं हो गया।
बद्रीदत्त पांडे बताते हैं कि पहले यह नाम केवल चम्पावत और उसके आसपास बसे गांवों के लिए प्रयोग होता था। बाद में यह नाम चाल्सी, गुमदेश, रेगडू, खिलफती और काली नदी के किनारे बसे अन्य गांवों और पट्टियो के लिए प्रयोग होने लगा और इस तरह यह काली कुमाऊं परगने की पहचान बन गया।
बाद में नैनीताल और अल्मोड़ा जिलों के साथ देहरादून और ब्रिटिश गढ़वाल यानी पौड़ी गढ़वाल को भी इसमें शामिल कर लिया गया। इतना ही नहीं, जब उन्नीसवीं सदी में पहली बार अलग उत्तराखंड राज्य की मांग उठी थी, तो टिहरी रियासत को छोड़कर आज के पूरे उत्तराखंड को कुमाऊं प्रांत बनाने की सिफारिश की गई थी। बद्रीदत्त पांडे कहते हैं कि कुमाऊं नाम से अभिप्राय अल्मोड़ा और नैनीताल की पहाड़ी पहाड़ियों से है।
कुमाऊं नाम को प्रचलित करने का श्रेय कुछ राज्यों को दिया जाता है। कूर्मौचल नाम के बारे में शिव प्रसाद डबराल अपनी पुस्तक उत्तराखंड का इतिहास में लिखते हैं कि 9वीं और 10वीं सदी तक कमादेश या कूर्मौचल का कोई उल्लेख नहीं मिलता।
वे लिखते हैं कि ठाकुर जोध सिंह नेगी अपनी पुस्तक हिमाले भ्रमण में कुमाऊं नाम के बारे में एक सिद्धांत देते हैं।
वे कहते हैं कि कुमाऊं के लोग खेती-किसानी और धन कमाने में माहिर होते हैं ।
उनका मानना है कि क्योंकि ये लोग बहुत चतुर होते हैं, इसलिए यहां से कुमाऊं नाम पड़ा। हालांकि बद्रीदत्त पांडे इस सिद्धांत को निराधार बताते हैं और यह ज्यादा सटीक भी नहीं लगता क्योंकि अन्य जगहों पर इस सिद्धांत का जिक्र शायद ही मिलता हो। कुमाऊं को हूण देश वाले क्यूँनन,अंग्रेज कमाउन ,देसी लोग कमायू ,और यहाँ के रहनेवासी कुमाऊं कहते हैं |महाभारत में जिस देश का नाम पहले पांचाल और बाद में उत्तर कुरु बताया गया है, विद्वान इस क्षेत्र को कुमाऊं कहते हैं। दरअसल महाभारत में एक कथा है कि उत्तरकुरु के राजा ने अर्जुन से संधि की और बदले में उसे दिव्यवस्त्र यानी कंबल और रेशम, दिव्यास्तर यानी खुकुरी और खांडे, मृगचर्म यानी खाले, घोरा और सूर्य के साथ रत्न दिए।कुछ लोगों का मानना है कि यह वर्णन कुमाऊं का है क्योंकि ये सभी चीजें यहीं से दिल्ली भी जाती थीं।बद्रीदत पांडे लिखते हैं कि कौरव संभवतः उस कूर्मांचल के राजा थे जो तब उत्तरकुरु में शामिल था।
अगर मुगल काल की बात करें तो अकबर के शासनकाल में कुमाऊं का जिक्र मिलता है। ये लोग कुमाऊं को कुमाँऊनियस कहते थे।इस काल में कुमाऊं को कुमाऊं सरकार कहे जाने का उल्लेख मिलता है। कुछ लोग यह भी मानते हैं कि कुमाऊं कभी उत्तर कौशल राज्य में शामिल था और कत्यूरी शासन के दौरान यह राज्य अलग हो गया।
शिवप्रसाद डबराल अपनी पुस्तक में बताते हैं कि 12वीं और 13वीं शताब्दी के लेखों में कुमाऊं और गढ़वाल को सपादलक्ष-शिखरि खशदेश यानी सवा लाक शिखरों वाला खशदेश कहा गया है। इसमें खशदेश के पूर्वी दक्षिणी छोर पर स्थित काली नदी की घाटी को कामदेश कहा गया है। डबराल लिखते हैं कि कामदेश को कमा और कुमु भी कहा जाता था। 15वीं शताब्दी में लिखी गई तारीख-ए-मुबारक शाही में कटेहर के हिंदू राजा खड़क सिंह के कुमाऊं के महातून देश भाग जाने का उल्लेख है।
डबराल बताते हैं कि 17वीं शताब्दी के मानसखंड में कूर्मांचल और कूर्मशिला का उल्लेख है। इसके अलावा विक्रमसंवत 1423 के ताम्रपत्र में चंपावत को कूर्मदेश बताया गया है। रामायण में कमठ पृष्ठ कुमाऊं और कमठ गिरी कूर्मांचल के लिए है।
बात करे गढ़वाल की तो इसका जिक्र स्कंद पुराण के केदार खंड में मिलता हैं:
इस भाग को केदारखंड से जाना जाता हैं। मुस्लमान इतिहास लेखकों ने इसे शिवालिक नाम से ज्यादा पुकारा हैं।गढ़वाल का इतिहास भी 5000 साल पुराना बताया गया हैं।वही गढ़वाल नाम पढ़ने की बात करे तो पता चलता हैं की पवार वंशी राजा अजय पाल ने रखा था।पंडित हरिकृष्ण रतूड़ी गढ़वाल का इतिहास मैं बताते हैं की राजा अजय पाल 1500 इस्वी में राजगद्दी पर बैठा।
उसने करीब 18 साल राज किया। राजगद्दी हासिल करते ही उसका युद्ध चंपावत के राजा से हुआ। जिसमे उसकी बुरी हार हुई। कहा जाता हैं उसके बाद वह कोई युद्ध नहीं हारा। अजयपाल के राजा बनने से पहले गढ़वाल छोटी-छोटी ठकुराईयो में बटा हुआ था। ये किसी के अधीन नहीं थे।
गढ़वाल में 52 गढ़ यानि ठकुराईयो के होने का जिक्र भी मिलता हैं। अजयपाल ने अपने साम्राज्य को बढ़ाने की ठानी और इसके लिए उसने यहाँ की ठकुराईयो को परास्त कर अपने सम्राज्य में मिलाना शुरू कर दिया। और बाद में जब कई ठकुराईयो यानि गढ़ उसने जीत लिए तो इस पुरे क्षेत्र का नाम करण गढ़-वाल कर दिया। यानि गढ़ो का एक प्रदेश। माना जाता है की अजयपाल ने 1500-1550 ईस्वी के बीच ये नाम करण किया।
तब से गढ़वाल नाम पुकारा जाने लगा। अजय पाल ने राज्य की सीमा तय की,परग ने पट्टियो को ठीक किया, और गढ़वाल में आज भी अजयपाल की कहावत कही चली आ रही हैं। आज भी गढ़वाल और कुमाऊं में अलग अलग जाति हरिजन पुकारा जाता है।
गढ़वाल एंसिएंट मॉडर्न में जिक्र मिलता है आर्यन पंजाब में बसे ,उन्हें हिमालय को लेकर बड़ा विस्मीय होता था।ज्ञानियो के लिए ये एक ऐसी परिवत्र जगह थी,जहा पहुंच कर परमात्मा मैं एक हो सकते थे।
हरिकृष्ण रडूडी लिखते हैं की डोम यानि हरिजन वहा के सबसे प्राचीन निवासी हैं। खसमि यहाँ पर 1300 साल पहले आ गए थे।गढ़वाल और कुमाऊँ मैं किरात, कुणिंद , नाग ,यवन लोग यहाँ की शुरुवाती जातिओ में से एक माने जाते हैं। बाद के काल में गढ़वाल और कुमांऊ मैदानों से राजाओ और उनके सेवको के हिमालय की तरफ भागने की तरफ जिक्र कई जगहों में मिलता हैं।माना जाता है आज की ज्यादा जातियां तिवारी, पांडेय, जोशी, अनगिनत सभी दक्षिण मध्य भारत से यहाँ पहुंचे। ये बदलाव मैदान से पहाड़ो की तरफ नहीं हुआ,बल्कि कुमांऊ से लेकर गढ़वाल के बीच में भी हुआ। कई गढ़वाली बीस्ट कुमांऊ गए, और कई कुमांऊ लोग गढ़वाल आए।अक्सर गढ़वाल और कुमाऊं के बीच जो तल्खी नज़र आती हैं ,उसके लिए इन दोनों छेत्रो के अलग अलग शासन को जिम्मेदार ठहराया जाता हैं। कुमांऊ,गढ़वाल के बीच कई युद्ध का जिक्र इतिहास में मिलता हैं। लेकिन गढ़वाल और कुमांऊ हमेशा से अलग नहीं थे। इस दौरान उत्तराखंड को दो भागो मैं नहीं बाटा गया था।
इस काल में मौर्य,वर्धन और पौरव राजवंशों ने शासन किया। उत्तराखंड दो भागों में विभाजित नहीं था। 750 से 1223 तक कत्यूरियों का पूरे उत्तराखंड पर एकछत्र राज होने का पता चलता है। 11वीं शताब्दी में उत्तराखंड दो इकाइयों पश्चिमी और पूर्वी में विभाजित हो गया।
ऐसा इसलिए किया गया ताकि दोनों क्षेत्रों का बेहतर प्रबंधन किया जा सके। दरअसल पश्चिमी और पूर्वी इकाइयों के बीच घना जंगल और कठिन रास्ता था। यहां जंगली जानवरों का खतरा हमेशा बना रहता था।
इस कारण एक छोर से दूसरे छोर पर जाने में काफी दिक्कतें होती थीं यह वर्ष 1100 की बात है जब कतुरी राजा नरसिंह देव ने अपनी राजधानी जोशीमठ से बागेश्वर जिले के बैजनाथ में स्थानांतरित की थी।यहां से उनके लिए कुमाऊं पर भी अपनी सत्ता बनाए रखना आसान हो गया। 1191 के आसपास जब गोरखा शासक अशोक चाकल ने कतूरी राजा पर विजय दर्ज की, इस दौरान उत्तराखंड का पूर्वी भाग कामदेश और पश्चिमी भाग केदारभूमि के नाम से जाना जाता था।
इसी से संबंधित है कि इसे गढ़देश या गर्व भी कहा जाता रहा है। कामदेश या वर्तमान कुमाऊं की बोली को कुमाऊं नहीं कहा जाता था, वहीं गढ़देश या वर्तमान गढ़वाल में बोली जाने वाली भाषा को गढ़वाली कहा जाता था। दोनों भाषाओं की उत्पत्ति खस, अपभ्रंश से हुई है।
इन दोनों भाषाओं में एकमात्र अंतर शब्दों और वाक्यों के उच्चारण में है, हालांकि पंद्रहवीं शताब्दी की भाषा के उच्चारण में अंतर है।
अंतर लगभग नगण्य था, यानी लगभग एक जैसा था। समय के साथ यद्यपि दोनों भाषाओं की शब्दावली बदल गई है, लेकिन मूलतः दोनों की उत्पत्ति एक ही स्थान से हुई है।
विक्रम की 13वीं शताब्दी में गोरखा राजाओं अशोक चल और क्रचाल ने उत्तराखंड को कई छोटे-बड़े भागों में बांट दिया। इससे राजनीतिक एकता भले ही समाप्त हो गई हो, लेकिन सांस्कृतिक एकता सदैव बनी रही। बाद में कुमाऊं के मंत्री पंडित ह्रदयदेव जोशी ने भी गढ़वाल और कुमाऊं को एक राज्य बनाने का प्रयास किया।जब सत्ता गोरखाओं के हाथ से अंग्रेजों के हाथ में चली गई, तो 4 मार्च 1820 को एक संधि हुई।
इस संधि के अनुसार,मंदाकिनी और अलकनंदा के क्षेत्र पर गढ़वाल के राजा सुदर्शन शाह का शासन था। यह पूरा राज्य टेरी के नाम से जाना जाने लगा और टेरी के अलावा पूरा उत्तराखंड का साम्राज्य था।
अंग्रेजों ने गढ़वाल और कुमाऊं को मिलाकर कुमाऊं बनाया। एक कमिश्नरी बनाई गई और इसे कुमाऊं प्रांत कहा गया। 1853-1854 के बीच कुमाऊं प्रांत में दो जिले थे, कुमाऊं और गढ़वाल। 1890 में अल्मोड़ा जनपद को अल्मोड़ा और नैनीताल में विभाजित कर दिया गया।
इसके बाद 1890 से 1949 तक कुमाऊं में सिर्फ़ तीन जनपद थे, अल्मोड़ा, नैनीताल और गढ़वाल, यानी कुमाऊं और गढ़वाल कभी अलग नहीं हुए।भौगोलिक कारणों से इनका प्रशासन और प्रबंधन अलग-अलग हो गया, हालांकि राजाओं के बीच लड़ाई के कारण इन दोनों के बीच दुश्मनी की भावना बढ़ती और फीकी पड़ती रही।
गढ़वाल और कुमाऊं का इतिहास अपने आप में बहुत विस्तृत और बड़ा है ।लेकिन अभी हमने इस व्यापक इतिहास को आपके सामने प्रस्तुत करने का प्रयास किया है, इतिहास के इस छोटे से हिस्से में सब कुछ शामिल करना संभव नहीं है, इसलिए हमने इसे केवल गढ़वाल और कुमाऊं की उत्पत्ति और उनके नामों तक ही सीमित रखा है।
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